मेरी प्रिय पुस्तक – कुरुक्षेत्र
मेरी प्रिय पुस्तक – कुरुक्षेत्र – मेरी सबसे प्रिय पुस्तक है – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘कुरुक्षेत्र’ | यह युद्ध और
शांति का समस्या पर आधारित है | इसमें महाभारत के उस प्रसंग का वर्णन है जब युद्ध के समाप्त होने पर भीषण शर-शय्या पर लेते हुए हैं | उधर पांडव अपनी जीत पर प्रसन्न हैं | परंतु धर्मराज युधिष्टर इतने लोगों की मृत्यु और बरबादी पर बहत दुखी हैं | वे पश्चाताप करते हुए भीष्म के पास जाते हैं | वे रोते हुए कहते हैं की उनहोंने युद्ध करके घोर पाप किया है | राज्य पाने के लिए की हिंसा भी पाप है, अन्याय है | इससे अच्छा तो यही होता कि वे भीख माँगकर जी लेते |
युद्ध का दोषी कौन – भीष्म युधिष्टर को कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में युधिष्टर का कोई दोष नहीं है | दोष तो पापी दुर्योधन का है, शकुनी का है, चारों और फैली द्वेष-भावना का है, जिसके कारण युद्ध हुआ –
पापी कौन ? मनुज से उसका
न्याय चुराने वाला |
या कि न्याय खोजते, विघ्न का
शीश उड़ाने वाला ||
दिनकर स्पष्ट कहते हैं कि अन्याय का विरोध करने वाला पापी नहीं है, बल्कि अन्याय करने वाला पापी है |
न्याय और शांति का संबंध - इस काव्य में दिनकर ने यह भी प्रश्न उठाया है कि किसी राज्य में शांति कैसे संभव है ? वे कहते हैं –
शांति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न सबका सम हो |
नहीं किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो ||
संघर्ष की प्रेरणा – इस संदेश के बाद भीष्म युधिष्टर को थपथपी देते हुए कहते हैं कि उसने अन्याय का वीरों करके अच्छा ही किया | भीष्म कहता हैं, अन्याय का विरोध करना तो पूण्य है, पाप नहीं |
छीनता हो स्वत्व कोई, और तू
त्याग–तप से कम ले, यह पाप है |
पूण्य है विच्छ्न्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ़ जो हाथ है |
भीष्म कहते हैं कि अन्यायी को दंड अवश्य मिलना चाहिए | क्षमा, दीनता आदि गुण वीरों के धर्म हैं, कायरों के नहीं |
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पाप गरल हो |
उसको क्या, जो दंतहीन
विषहीन विनीत सरल हो ||
ओजस्वी भाषा – दिनकर का यह ग्रंथ प्रेरणा, ओज, वीरता, साहस और हिम्मत का भंडार है | इसकी भाषा आग उगलती है | इस काव्य को पढ़कर मुर्दे में भी जन आ सकती है | इसके वीरता भरे शब्द मुझे बार-बार इसे पढ़ने की प्रेरणा देते हैं |
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