सैनिक की आत्मकथा
परिचय – मैं भारतीय थल सेना का जवान हूँ |नाम है – बलवान
सिंह | मैं दिल्ली के गाँव में जन्मा तथा मधुबन (करनाल) के सैनिक स्कूल में पढ़ा |
मेरी माँ बतलाती है के जिस दिन मेरा जानल हुआ, उसी दिन मेरे पिता भारत-पाक युद्ध
से सफल होकर लोटे थे | मेरे सैनिल पिता को बड़ा था कि मैं सैनिक बनूँ |
प्रशिक्षण – जब मैं अठारह वर्ष का हुआ, मेरे पिता ने मुझे
थल-सेना में भर्ती करा दिया |मैं शरीर से सवास्थ, सुगठित और मजबूत था ही | अतः
मुझे शीघ्र ही चुन लिया गया | प्रशिक्षण के खाते-मीठे अनुभव मुझे आज भी याद हैं |
मुझे सैनिक-प्रशिक्षण में तो खूब आनंद आता था, परंतु माँ-बाप से अलग रहने के कारण
मन बहुत उदास रहता था |
कार्य के दौरान अनुभव – कठोर प्रशिक्षण के उपरांत मेरी पहली
नियुक्ति जालंधर छावनी में हुई | उन दिनों पंजाब का आतंकबाद फन फैलाय खड़ा था |
सैनिक-असैनिक कोई सुरक्षित नहीं था | ऐसे भयानक दिनों में रात-रात भर अकेले सड़क पर
बदूंक ताने घूमना खतरे का काम था, परंतु मैंने तो यही सोच रखा था –
जिसने मरना सिख लिया है जीने का अधिकार उसी को |
जो काँटों के पथ पर आया, फूलों का उपहार उसी को ||
ड्यूटी के दौरान मैंने लेह के बर्फीले इलाकों का भी आनंद
लिया है
और जेसलमेर की तपती बालू का भी | चुनावों के दौरान हमें एक स्थान से दुसरे स्थान
पर जाना पड़ता है |
ज़िंदगी-एक दीवानगी – हम सैनिकों की ज़िंदगी में एक अजब
दीवानापन होता है | हमारी किसी साँस का भरोसा नहीं | मौत हर दम हमारे नाचती है
किंतु हम दीवाने उससे खेल खेलते हैं | हमारे सैनिक मित्र आपस में मिलकर हँसकर
ज़िंदगी काट लेते हैं | हम कहीं भी हों, मस्ती हमारा साथ नहीं छोड़ती |
देश-प्रेम – हमारे जीवन में देश-प्रेम का नशा छाया रहता है
| जब हम किसी नगर की अशांति को शांति में बदलकर विदा होते हैं तो मन में संतोष
पैदा होता है | जब विपति में फँसे बाढ़-पीड़ितों या दुर्घटना-पीड़ितों को सहायता
पहुँचाते हैं तो भी हमें आनंद मिलता है |
अनुशासन और कर्तव्य हमारा धर्म – मैं सैनिक हूँ | अनुशाशन
और कर्तव्य-पालन मेरा धर्म है | चाहे काँटे हों या फूल, पत्थर हों या धुल, मुझे देश-सेवा
में जुटना ही है | मेरे जीवन की एक ही आकांशा है –
न चाहुँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना |
यही वर दो मुझे माता, रहूँ भारत का दीवाना ||
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