छात्र और शिक्षक
घर-प्रारंभिक पाठशाला, माता-पिता प्रथम शिक्षक – पूरा जीवन एक विदायक है | हर व्यक्ति विदार्थी भी है और शिक्षक भी | कोई भी मनुष्य किसी से कुछ सिख सकता है | बच्चे के लिए सबसे पहली पाठशाला होती है – घर | माता-पिता ही उसके प्रथम शिक्षक होते हैं | वे उसे ईमानदारी, सच्चाई या बेईमानी का मनचाहा पथ पढ़ा सकते हैं | वास्तव में माता-पिता जैसा आचरण करते हैं बच्चा उसी को सही मानकर ग्रेहन कर लेता है |
विद्यालय में शिक्षक ही माता-पिता – विद्यालय में शिक्षक ही माता-पिता के समान होते हैं | वे बच्चों को अपनी प्रिय संतान के समान मानते हैं | उन पर बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व होता है | इसलिए वे अच्छे कुंभकार के समान बच्चों की बुरी आदतों पर चोट करते हैं तथा अच्छी बातों की प्रशंसा करते हैं | शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों की बुरी आदतों का समर्थन न करें, अपितु उन्हें उचित मार्ग पर लाने का प्रयास करें |
शिक्षक का दायित्व, पढ़ाना, दिशा-निर्देशन, सत्य्कार्यों की प्रेरणा – शिक्षकों का दायित्व केवल पुस्तकें पढ़ाना नहीं है | अपना विषय पढ़ाना उनका प्रथम धर्म है | उन्हें चाहिए कि वे अपने विषय को सरस और सरल ढंग से बच्चों को पढाएँ | उनका दूसरा दय्तिव है – बच्चों को सही दिशा बताना | अच्छे-बुरे की पहचान करना | तीसरा दायित्व है – बच्चों को शुभ कर्मों की प्रेरणा देना |
छात्र का दायित्व, परस्पर संबंद – शिक्षा-प्राप्ति का कर्म छात्रों की सदभावना के बिना पूरा नहीं हो सकता | जब तक छात्र अपने शिक्षक को पूरा सम्मान नहीं देता, तब तक वह विद्या ग्रहण नहीं कर सकता | कहा भी गया है – ‘श्रद्धावान लभते ज्ञ्नाम |’ श्रद्धावान को ही विद्या प्राप्त होती है | अपने शिक्षक पर संपूर्ण विश्वास रखने वाले छात्र ही शिक्षक की वाणी को ह्रदय में उतार सकते हैं | अच्छा छात्र हमेशा यही कहता है –
दोनों परस्पर अपने-अपने दायित्वों की समझें – विद्या-प्राप्ति का कार्य शिक्षक और छात्र दोनों के आपसी तालमेल पर निर्भर है | कबीर कहते है –
सतगुरु बपुरा क्या करै, जे सिष महि चुक
यदि छात्र में दोष हो तो सतगुरु चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता | इसके विपरीत यदि गुरु अयोग्य हो तो उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है –
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