Wednesday, September 28, 2016



A Sleepless Summer Night

One works during the day and sleeps at night. One night I could not have a wink of sleep. It was the night of June 21 last. It was very close during the day. I could not enjoy my afternoon nap as I was busy. I was tired. So I went to bed early at night. Suddenly, it became very hot. I lay tossing about in the bed in the open courtyard. I was disturbed and could not sleep. No wind was blowing. The table fan seemed to work but it gave no wind. My tongue was parched. I got up and went to take water at the municipal tap. The water was boiling. I began moving to and fro. The night became hotter and hotter. I heard voices of people In the street. They were all complaining against the weather getting hotter and hotter. I became restless as I had not slept during the day. I took my cot on the roof of the house. The wind was not where to be found. The sky looked to be a burning sheet. I lay in the bed. I tried to sleep but in vain. I brought a bucket of water and sprinkled water on the bed. It gave me some relief but sleep was out of question. I began looking at the stars above. Time passed heavily. I began marking time. Half of the night had already gone. At last, I heard the cattle pass by. The wall clock struck five in the morning. I left the bed and went out for my morning walk. I took my bath outside at a well. I came back home rather spent out. It had been a horrible summer night whose memory still torments me.




How You Spent Your Last Sunday

Life today is very fast mechanical. At times, it is dull and monotonous. One is caught in the coil of routine. All work without rest or respite deadens the spirits. One craves for a change, variety and diversion from the soul-killing work. A picnic or an excursion provides the much desired change from the market and started on bicycles. We were a group of ten boys. Many picnic-goers on bicycles and motor-cycles passed by us. We went singing and enjoying ourselves. We reached the canal bank in about half an hour. We chose a shady corner and spread a carpet over a piece of land. We sat in a semi-circle and started playing at cards. One of our friends in a T.V. artist. He delighted us with his melodious songs. Another fellow in the jolly company showed us some of this magic tricks. Then we took off our clothes and jumped into canal for a swim. We felt fresh after the swim. As we felt hungry and tired, we ate to our fill. We then had the afternoon nap. Suddenly, there came a man with a guitar in his hand. He was playing a fine tune on his instrument. We were all shaken out of slumber. We requested the fellow to play some dance tune. Next moment, we were on our heels. It was a fine show. All of a sudden, there appeared clouds in the sky. We packed our things and came back home. It was really a day of joy.  An outing with friends after a busy spell of work is most welcome.




A Cultural Function In Your College

Life is at times monotonous and dull. One finds oneself chained to a very dull and dreary routine. One craves for change, for a variety, for a diversion from the soul-killing books, classroom lectures, home work and examinations. A cultural function provides this much desired change. A cultural function adds to the flavor and taste of life and makes it worth-living. That is why, every student looks forward to it with keen interest. I remember every minute of the cultural function in which I participated last year. The Governor of the State inaugurated the function. There was thrilling sequence of solo songs, group songs, dances, one act plays and humorous skits. The Hindi one act play entitled “Shaheed ” was a real thrill. The scene of Bhagat Singh and his associates being escorted to the scaffolds brought tears in every eye. I played the role of Bhagat Singh. The solo songs, group songs and one-act plays regale the audience. The humorous skits evoked roars of laughter. In the presidential speech, the Governor appreciated the young artists and had a special word of praise for me. He announced a prize of rupees five hundred each to the young artists and had a special word of praise for me. He announced a prize of rupees five hundred each to the young artists. The principal thanked to Governor and the audience and declared a holiday in honor of the Governor’s first visit to the college. We came back home happy and gay. It was really a gala day for us.




छात्र और शिक्षक 

घर-प्रारंभिक पाठशाला, माता-पिता प्रथम शिक्षक – पूरा जीवन एक विदायक है | हर व्यक्ति विदार्थी भी है और शिक्षक भी | कोई भी मनुष्य किसी से कुछ सिख सकता है | बच्चे के लिए सबसे पहली पाठशाला होती है – घर | माता-पिता ही उसके प्रथम शिक्षक होते हैं | वे उसे ईमानदारी, सच्चाई या बेईमानी का मनचाहा पथ पढ़ा सकते हैं | वास्तव में माता-पिता जैसा आचरण करते हैं बच्चा उसी को सही मानकर ग्रेहन कर लेता है |

विद्यालय में शिक्षक ही माता-पिता – विद्यालय में शिक्षक ही माता-पिता के समान होते हैं | वे बच्चों को अपनी प्रिय संतान के समान मानते हैं | उन पर बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व होता है | इसलिए वे अच्छे कुंभकार के समान बच्चों की बुरी आदतों पर चोट करते हैं तथा अच्छी बातों की प्रशंसा करते हैं | शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों की बुरी आदतों का समर्थन न करें, अपितु उन्हें उचित मार्ग पर लाने का प्रयास करें |

शिक्षक का दायित्व, पढ़ाना, दिशा-निर्देशन, सत्य्कार्यों की प्रेरणा – शिक्षकों का दायित्व केवल पुस्तकें पढ़ाना नहीं है | अपना विषय पढ़ाना उनका प्रथम धर्म है | उन्हें चाहिए कि वे अपने विषय को सरस और सरल ढंग से बच्चों को पढाएँ | उनका दूसरा दय्तिव है – बच्चों को सही दिशा बताना | अच्छे-बुरे की पहचान करना | तीसरा दायित्व है – बच्चों को शुभ कर्मों की प्रेरणा देना |

छात्र का दायित्व, परस्पर संबंद – शिक्षा-प्राप्ति का कर्म छात्रों की सदभावना के बिना पूरा नहीं हो सकता | जब तक छात्र अपने शिक्षक को पूरा सम्मान नहीं देता, तब तक वह विद्या ग्रहण नहीं कर सकता | कहा भी गया है – ‘श्रद्धावान लभते ज्ञ्नाम |’ श्रद्धावान को ही विद्या प्राप्त होती है | अपने शिक्षक पर संपूर्ण विश्वास रखने वाले छात्र ही शिक्षक की वाणी को ह्रदय में उतार सकते हैं | अच्छा छात्र हमेशा यही कहता है –
दोनों परस्पर अपने-अपने दायित्वों की समझें – विद्या-प्राप्ति का कार्य शिक्षक और छात्र दोनों के आपसी तालमेल पर निर्भर है | कबीर कहते है –

सतगुरु बपुरा क्या करै, जे सिष महि चुक 

यदि छात्र में दोष हो तो सतगुरु चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता | इसके विपरीत यदि गुरु अयोग्य हो तो उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है –




मेरे जीवन का लक्ष्य या उदेश्य

लक्ष्य का निश्चय – मैं दस्वीं कक्षा का छात्र हूँ | मेरे मन में एक ही सपना है कि मैं इंजीनियर बनूँगा |

लक्ष्यपूर्ण जीवन के लाभ – जब से मेरे भीतर यह सपना जागा है, तब से मेरे जीवन में अनेक परिवर्तन आ गय हैं | अब मैं अपनी पढ़ई की और अधिक ध्यान देने लगा हूँ | पहले क्रिकेट के खिलाडियों और फ़िल्मी तारिकाओं में गहरी रूचि-लेता था, अब ज्यामिति की रचनाओं और रासायनिक मिश्रणों में रूचि लेने लगा हूँ | अब पढ़ाई में रस आने लगा है | निरुदेश्य पढ़ाई बोझ थी | लक्ष्बुद्ध पढ़ाई में आनंद है | सच ही कहा था कलाईल ने – “ अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाओ, और इसके बाद अपना सारा शरीरिक और मानसिक बल, जो ईश्वर ने तुम्हें दिया है, उसमें लगा दो |”

मेरा संकल्प – मैंने निश्चय किआ है कि मैं इंजिनियर बनकर एक संसार को नए-नए साधनों से संपन्न करूँगा | मेरे देश में जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, उसके अनुसार मशीनों का निर्माण करूँगा | देश में जल-बिजली , सड़क या संचार-जिस भी साधन की आवश्यकता होगी, उसे पूरा करने में अपना जीवन लगा दूँगा |

मैं गरीब परिवार का बालक हूँ | मेरे पिता किराए क एक मकान में रहे हैं | धन की तंगी के कारण हम अपना माकन नहीं बना पाए | यही दशा मेरे जैसे करोंड़ों बालकों की है | मैं बड़ा होकर भवन-निर्माण की ऐसी सस्ती, सुलभ योजनाओं में रूचि लूँगा | जिससे माकनहीनों को मकान मिल सकें |

मैंने सुना है कि कई इंजिनियर धन के लालच में सरकारी भवनों, सड़कों, बाँधों में घटिया सामग्री लगा देते हैं | यस सुनकर मेरा ह्र्दय रो पड़ता है | मैं कदपि यह पाप-कर्म नहीं करूँगा, न अपने होते यह काम किसी को करने दूँगा |

लक्ष्य-पूर्ति का प्रयास – मैंने अपने लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में प्रयास करने आरम्भ कर दिए हैं | गणित और विज्ञान में गहरा अध्ययन कर रहा हूँ | अब मैं तब तक आराम नहीं करूँगा, जब तक कि लक्ष्य को पा न लूँ |
कविता की ये पंक्तियाँ मुझे सदा चलते रहने की प्रेरणा देती हैं –

धनुष से छुटता है बाण कब पथ में ठहरता |
देखते ही देखते वह लक्ष्य का ही बेध करता |
लक्ष्य-प्रेरित बाण हैं हम, ठहरने का काम कैसे ?
लक्ष्य तक पहूँचे बिना, पथ में पथिक विश्राम कैसा ?


Sunday, September 25, 2016



मेरी प्रिय पुस्तक – कुरुक्षेत्र

मेरी प्रिय पुस्तक – कुरुक्षेत्र – मेरी सबसे प्रिय पुस्तक है – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘कुरुक्षेत्र’ | यह युद्ध और
शांति का समस्या पर आधारित है | इसमें महाभारत के उस प्रसंग का वर्णन है जब युद्ध के समाप्त होने पर भीषण शर-शय्या पर लेते हुए हैं | उधर पांडव अपनी जीत पर प्रसन्न हैं | परंतु धर्मराज युधिष्टर इतने लोगों की मृत्यु और बरबादी पर बहत दुखी हैं | वे पश्चाताप करते हुए भीष्म के पास जाते हैं | वे रोते हुए कहते हैं की उनहोंने युद्ध करके घोर पाप किया है | राज्य पाने के लिए की हिंसा भी पाप है, अन्याय है | इससे अच्छा तो यही होता कि वे भीख माँगकर जी लेते |

युद्ध का दोषी कौन – भीष्म युधिष्टर को कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में युधिष्टर का कोई दोष नहीं है | दोष तो पापी दुर्योधन का है, शकुनी का है, चारों और फैली द्वेष-भावना का है, जिसके कारण युद्ध हुआ –

पापी कौन ? मनुज से उसका 
न्याय चुराने वाला |
या कि न्याय खोजते, विघ्न का 
शीश उड़ाने वाला ||

दिनकर स्पष्ट कहते हैं कि अन्याय का विरोध करने वाला पापी नहीं है, बल्कि अन्याय करने वाला पापी है |

न्याय और शांति का संबंध -  इस काव्य में दिनकर ने यह भी प्रश्न उठाया है कि किसी राज्य में शांति कैसे संभव है ? वे कहते हैं –

शांति नहीं तब तक, जब तक 
सुख-भाग न सबका सम हो |
नहीं किसी को बहुत अधिक हो 
नहीं किसी को कम हो ||

संघर्ष की प्रेरणा – इस संदेश के बाद भीष्म युधिष्टर को थपथपी देते हुए कहते हैं कि उसने अन्याय का वीरों करके अच्छा ही किया | भीष्म कहता हैं, अन्याय का विरोध करना तो पूण्य है, पाप नहीं |

छीनता हो स्वत्व कोई, और तू
 त्याग–तप से कम ले, यह पाप है |
पूण्य है विच्छ्न्न कर देना उसे
बढ़ रहा तेरी तरफ़ जो हाथ है |

भीष्म कहते हैं कि अन्यायी को दंड अवश्य मिलना चाहिए | क्षमा, दीनता आदि गुण वीरों के धर्म हैं, कायरों के नहीं |

क्षमा शोभती उस भुजंग को 
जिसके पाप गरल हो |
उसको क्या, जो दंतहीन 
विषहीन विनीत सरल हो ||

ओजस्वी भाषा – दिनकर का यह ग्रंथ प्रेरणा, ओज, वीरता, साहस और हिम्मत का भंडार है | इसकी भाषा आग उगलती है | इस काव्य को पढ़कर मुर्दे में भी जन आ सकती है | इसके वीरता भरे शब्द मुझे बार-बार इसे पढ़ने की प्रेरणा देते हैं |




पुस्तकों का महत्व

पुस्तकें : हमारी मित्र – पुस्तकें हमारी मित्र हैं | वे अपना अमृत-कोष सदा हम पर न्योछावर करने को तैयार रहती हैं | अच्छी पुस्तकें हमें रास्ता दिखाने के साथ-साथ हमारा मनोरंजन भी करती हैं | बदले में वे हमसे कुछ नहीं लेतीं, न ही परेशान या बोर करती हैं | इससे अच्छा और कौन-सा साथी हो सकता है कि जो केवल कुछ देने का हकदार हो, लेने का नहीं |

पुस्तकें : प्रेरणा का स्त्रोत – पुस्तकें प्रेरणा की भंडार होती हैं | उन्हें पढ़कर जीवन में कुछ महान कर्म करने की भावना जागती है | महात्मा गाँधी को महान बनाने में गीता, टालस्टाय और थोरो का भरपूर योगदान था | भारत की आज़ादी का संग्राम लड़ने में पुस्तकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी | मैथलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती पढ़कर कितने ही नौजवानों ने आज़ादी के आदोंलन में भाग लिया था |

पुस्तकें : विकास की सूत्रधार – पुस्तकें ही आज की मानव-सभ्यता के मूल में हैं | पुस्तकों के दुवारा एक पीढ़ी का ज्ञान दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते सरे युग में फ़ैल जाता है | विपिल महोदय का कथन है – “पुस्तकें प्रकाश-गृह हैं जो समयह के विशाल समुद्र में खड़ी की गई हैं |” यदि हज़ारों वर्ष पूर्व के ज्ञान को पुस्तकें अगले युगतक न पहुँचती तो शायद एक वैज्ञानिक सभ्यता का जन्म न होता |

प्रचार का साधन – पुस्तकें किसी भी विचार, संस्कार या भावना के प्रचार का सबसे शक्तिशाली साधन हैं | तुलसी के ‘रामचरितमानस’ ने तथा व्यास-रचित महाभारत ने अपने युग को तथा आने वाली श्तब्दियों की पूरी तरह प्र्भाभित किया | आजकल विभिन्न सामाजिक आंदोलन तथा विविध विचारधाराएँ अपने प्रचार-प्रसार के लिए पुस्तकों को उपयोगी अस्त्र के रूप में अपनाती हैं |

मनोरंजन का साधन  - पुस्तकें मानव के मनोरंजन में भी परम सहायक सिद्ध होती हैं | मनुष्य अपने एकांत क्षण पुस्तकों के साथ गुजार सकता है | पुस्तकों के मनोरंजन में हम अकेले होते हैं, इसलिए मनोरंजन का आनंद और अधिक गहरा होता है | इसलिए किसी ने कहा है – “पुस्तकें जागत देवता है | उनकी सेवा करके तत्काल वरदान प्राप्त किआ जा सकता है |”


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